मंगलवार, 15 नवंबर 2011

जुलाई २००१ की शायरी

अपने गुनाहों को कहीं भूल न जाऊं
इसलिए बद्दुआएं उसकी साथ रखता हूँ.

शनिवार, 21 मार्च 2009

आने वाले समय में इलेक्ट्रोनिक पत्रकारों का रिज्यूम

नाम:- काल- कपाल
योग्यता:- २५ प्रकार के साँपों की पहचान है।
अनुभव:- पिछले १२ वर्षों से सपेरे का काम कर रहे हैं।

यह रिज्यूम होगा आने वाले सालों में टीवी चैनल्स के लिए अप्लाई करने वाले सर्पकारों का....ऊप्स सॉरी सो कॉल्ड पत्रकारों का। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जिस तरह नागों की फेस वैल्यू बढती जा रही है, हो सकता है सपेरों को अपनी फेस वल्यु पता चले और वे आने वाले सालों में इस क्षेत्र में अपना कैरिअर बनाना चाहें।

सोंचिये यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा?

नाग-पंचमी का दृश्य स्टूडियो में एक सर्पकार कह रहा होगा - हम अपने दर्शकों को बता दें की आज दिन है नाग लोक के राष्ट्रीय त्यौहार का। आज के दिन आज यहाँ झंडा वंदन होता है। शेषनाग और तक्षक राष्ट्र के नाम सन्देश प्रेषित करते हैं और फुंफकार प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। आज के दिन सभी लोग एक-दूसरे को दूध पिलाते हैं।
तो क्या रिपोर्टर बेरोजगार हो जायेंगे?

नहीं जी..... रिपोर्टर घर-घर जाकर पृथ्वी लोक के प्राणियों को टोकरी में रखे कैमरे और माइक दिखायेंगे। लोग उनकी पूजा करेंगे और पत्रकारों को पैसे और पुराने कपड़े देंगे।

तो आगे-आगे देखिये होता है क्या?


आगे के दृश्यों की चर्चा अगले अंक में....इजाजत दीजिये....नमस्कार।


साभार: नम्रता पंडित

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

एचआईवी पीड़ित और एड्स पीड़ित में अन्तर


मित्रों, एक बार फ़िर से आप लोगों के सामने एक नई कविता लेकर हाजिर हूँ. इस नव वर्ष कि यह प्रथम रचना है. आशा है कि आप लोगों को यह पसंद आएगी.



जी हाँ, मैं एचआईवी पोजिटिव हूँ,

मात्र एचआईवी पोजिटिव,

एड्स पीड़ित नही।

लेकिन आप लोग एड्सग्रसित दिखते हैं

सोंचिये ऐसा क्यों है ?

चक्कर में पड़ गए न

कि बिना एचआईवी के एड्स रोगी?

जी हाँ, यह कटु सत्य है

मैं समाज में पहले की भांति ही जीना चाहता हूँ,

मैं चाहता हूँ की लोग मेरे प्रति सहानुभूति न रखें,

मेरे साथ अछूत जैसा व्यवहार न करें।

लेकिन

यह एड्सग्रस्त समाज है

जिसमे तथाकथित,

जी हाँ तथाकथित

बुद्धिजीवी, समाजसेवी और उत्कृष्ठ लोग रहते हैं,

जो मेरे जीने की इच्छा को
दबाकर ख़त्म कर देना चाहते हैं,

मुझे मरना चाहते हैं।

अब आप ही बताएं

कि एड्स पीड़ित कौन है?

जानलेवा बीमारी से ग्रसित कौन है?

क्या वो नही

जो एचआईवी पीड़ित की जान लेना चाहते हैं।

बेहतर होगा कि

आप मेरी अपेक्षा

इन तथाकथितों की चिंता करें

और

इनके इलाज कि व्यवस्था करें

अगर

इस एड्स ग्रसित समाज को
इस जानलेवा बीमारी से मुक्ति मिल गई

तो एचआईवी पीडितों को

मात्र एचआईवी से लड़ना पड़ेगा,

समाज से नही।

और

वे बेहतर ढंग से जीवन जी सकेंगे,

जी हाँ,

जीवन को जी सकेंगे।


चित्र साभार : गूगल

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

''आमची मुंबई'' और ''मराठी मानुष'' के नारों वाले महाराष्ट्र के ठेकेदार कहाँ छिप गए?????




अभी तक मराठी गौरव और महाराष्ट्र अस्मिता का दंभ भरने वाले स्वघोषित महाराष्ट्र के रक्षक कहाँ गायब हो गए, कुछ पता ही नही चला। अब जब आतंकियों ने महाराष्ट्र पर हमला किया तो क्या ये हाथों में चूडियाँ पहन और घूंघट निकल कर घरों में दुबक गए। गरीबों और कमजोरों को खुलेआम पीटना तो इनकी बहादुरी थी, तो अब इनकी बहादुरी कहाँ चली गई?
मैं नही कहता कि जाकर आतंकियों से भिड जाओ लेकिन कम से कम अपनी फौज को घायल और असहाय लोगों कि मदद के लिए लगा सकते थे। मानवता के लिए न सही महाराष्ट्र के लिए करते। तब मैं भी समझता कि हाँ आप कुछ करना चाहते है महाराष्ट्र के लिए।
आप के कुकृत्यों से सारे देश और आतंकियों में यह संदेश गया कि आप जैसा टुटपुंजिया नेता अगर पूरे देश और सारे महाराष्ट्र को नचा सकता है और सत्ता और प्रशासन आपकी रखैल बन सकती है तो वो मात्र ८-१० कि संख्या में पूरे राष्ट्र को घुटनों पर बैठने को विवश कर सकते हैं। और उन्होंने यह किया भी, लेकिन भला हो देश के उन जाबांज सपूतों का जिन्होंने इसे असफल कर दिया।
आपने थोडी सी नाक काटी तो उन्होंने बुलंद हौसलों के साथ पूरी नाक काटने कि कोशिश की। इन दोनों घटनाओं में एक साम्यता यह है कि दोनों में हमारे नपुंसक राजनीतिज्ञ अपनी घटिया हरकतों का प्रदर्शन करते रहे मात्र वोट बैंक के लिए।
अगर जरा सी भी जलालत और इज्जत बची हो तो फ़िर कभी भी मराठी गौरव का रक्षक बनने की कोशिश न कीजियेगा। यह मेरी आपको एक भारतीय होने के नाते एक सलाह है।

शनिवार, 29 नवंबर 2008

क्या हमारी हालत पाकिस्तान से भी बदतर है ???





जी हाँ , उपर्युक्त शीर्षक पर विचार करें तो जबाब मिलता है- हाँ

पाकिस्तान में रोज बम धमाके हो रहे हैं, प्रतिदिन आतंकी गोलियों की बौछार करते हुए किसी को भी मौत के घाट उतार देते हैं, आतंकी पूरे पाकिस्तान में जहाँ चाहें वहां आसानी से हमला कर सकते है और किसी को भी बेरोकटोक निशाना बना लेते हैं। हम उनका मजाक उड़ते हैं, उनके परमाणु प्रतिष्ठानों और परमाणु हथियारों की सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं।

अब जरा गौर करें कि क्या ऐसे ही हालात भारत में नही निर्मित हो गए हैं?

लश्कर-ऐ- तैयबा के जैसी कार्यप्रणाली पर काम करने ये वाले आतंकी ख़ुद को इंडियन मुजाहिद्दीन या डेक्कन मुजाहिद्दीन के छद्म नाम से प्रचारित करते है और हमले के पहले सूचना देते हैं कि हम आमुक स्थान पर हमला करने जा रहे हैं यदि दम है तो रोक लो?

हमले के बाद हमारी सुस्त कार्य प्रणाली हरकत में आती है और किश्तों में जांच शुरू कि जाती है। जांच ही काफ़ी दिनों तक घसीट-घसीट कर चलती है और निष्कर्ष नही आ पाता है। यदि किसी ठोस नतीजे पर पहुँच भी जाएँ तो उसे सजा नही दिला पाते। इस पूरी कार्यवाही के दौरान मानवाधिकार वाले खूब हल्ला मचाते हैं और विभिन्न राजनैतिक दल राष्ट्रहित को तिलांजलि देकर अपना वोट बैंक और स्वहित देखते हैं।

लश्कर-ऐ- तैयबा द्वारा प्रशिक्षित सिमी के ये कार्यकर्ता छोटे-छोटे गुटों में बंटकर नकली नाम से अपने मिशन को अंजाम देते हैं। और जरूरत पड़ने पर ये गुट साझा होकर भी अंजाम देते हैं। घटना के बाद हमारे राष्ट्र को चलने वाले बयान देते हैं कि- हम इसकी कड़ी निंदा करते हैं, सीमा पार प्रायोजित है, आतंकियों को बख्शा नही जाएगा, हम छोडेंगे नही आदि। अरे भाई! पहले पकडो तो सही। अगर मालूम है कि सीमा पार प्रायोजित है तो उचित कार्यवाही क्यों नही करते? वैश्विक दबाव काहे नही बनवाते? खाली ''थोथा चना बाजे घना'' वाली कहावत चरित्रार्थ हो रही है।

उत्तर-प्रदेश, जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद, दिल्ली, असम और फ़िर मुंबई। क्रमशः इन जगहों को ये अपना निशाना बनाते हैं और हम हर बार दावा करते हैं कि हमारी सुरक्षा व्यस्था टाइट है। इसी दावे के तुंरत बाद हम फ़िर से निशाना बनते है। मतलब साफ़ है कि वो जब, जहाँ, जैसा चाहते हैं वैसा कर डालते हैं और हम देखते रह जाते हैं।

इसको देखते हुए क्या हमारे परमाणु प्रतिष्ठानों कि सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न नही खड़ा होता है? क्या हमारी हालत पकिस्तान से भी ज्यादा ख़राब नही है? धनबल में, सांख्यबल में, रुतबे में, हर दृष्टि में पकिस्तान से बेहतर हैं, हम पर किसी भी राष्ट्र का कोई दबाव भी नही है फ़िर भी हमारी हालत उन्ही के बराबर है तो इसका क्या मतलब निकला जाय?

हमारे यहाँ आतंकवाद सम्बन्धी कड़े कानूनों का अभाव है? संघीय जांच एजेंसी नही है। केन्द्र और राज्य सरकारों में तालमेल का आभाव है। ऐसे मौकों पर राजनैतिक लाभ और वोट बैंक की राजनीति हमेशा अडी रहती है। इस पर खुफिया असफलता, मीडिया की नकारात्मक भूमिका, हर एक पल को सनसनीखेज बनाकर पेश करना और जनता की निष्क्रियता ''कोढ़ में खाज'' जैसी हो गई है।

अन्य राष्ट्रों में चुनावी मुद्दे विदेश नीति, नागरिक सुरक्षा, विकास आदि रहते हैं तो हमारे यहाँ जाति, वंश, बाहुबल आदि रहते हैं। जनता इसके विरोध में उठ खड़ी भी नही होती। वो तो सोंचती है मैं मजे में हूँ बाकि जाए भाड़ में, मुझे क्या लेना है या फ़िर इस चौपाई के सहारे जी रही है की- '' होएहै वही जो राम रचि राखा ''।

अभी भी वक्त रहते सचेत न हुए तो निश्चय ही पकिस्तान से पहले हम बर्बाद हो जायेंगे।


चित्र साभार: गूगल

श्रधांजलि और नमन

भारत देश की आर्थिक राजधानी और युवा धड़कनों का शहर मुंबई बुधवार को आतंकी हमलों की चपेट में एक बार फ़िर से आ गया। यहाँ आतंकियों ने खुलेआम मौत बरसाई और पूरे शहर को हैण्डग्रेनेड और गोलियों की बौछार से ढक दिया। इसमे मारे गए लोगों को मेरी ओर से हार्दिक श्रधांजलि और इन आतंकियों से लोहा लेते और लोगों को बचाने में शहीद हुए लोगों को दिल से नमन।

शनिवार, 22 नवंबर 2008

विज्ञान के चमत्कार...












'टेलीफोन' होता अगर 'मथुरा' से 'द्वारिका' को
तो 'कृष्ण' के वियोग में 'राधा' बिलखती क्यों?
'फायर-ब्रिगेड' होता अगर 'राजा-रावण' पास
तो 'कपि' के जलाये 'स्वर्ण लंका' यों जलती क्यों?





चित्र साभार : गूगल