गुरुवार, 28 अगस्त 2008

आरक्षण बढायेंगे, देश को मिटायेंगे.....

आरक्षण को लेकर केन्द्र सरकार और आईआईटी संस्थान दोनों आमने-सामने आ गए हैं। इस मुद्दे को लेकर दोनों में टकराव अवश्याम्भवी दिख रहा है। दोनों की अपनी सोंच है और दोनों के अपने लाभ जुड़े हैं। अपने इसी लाभ को देखते हुए कोई भी पीछे हटने को तैयार नही है। एक तरफ़ हैं केन्द्र सरकार है तो दूसरी ओर उच्च संस्थान, एक आरक्षण के पक्ष में है तो दूसरा विरोध में, एक के लिए राजनैतिक हित अहम् हैं तो दूसरे के लिए राष्ट्रहित ओर एक पक्ष अपना वोट बैंक देख रहा है तो दूसरा संस्थान की गुणवत्ता का हित. इन्ही कारणों से सरकार ओर संस्थान आमने-सामने आ गए हैं।

इस टकराव की शुरुवात तब हुई जब आईआईटी निदेशकों को केन्द्र सरकार ने एक निर्देश जारी किया और कहा कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडा वर्ग के शिक्षकों कि भर्ती में ४९।५% आरक्षण सुनिश्चित किया जाय। वहीं साथ ही साथ आईआईटी- जेईई परीक्षा में शामिल होने के लिए तय मानक १२वीं की परीक्षा में ६०% अंक को घटाकर ५०% करने का निर्देश दिया है।

जबकि ज्वाइंट एडमिशन बोर्ड मौजूदा ६०% को बढाकर ८५% करने का विचार कर रहा है। २४ अगस्त को खड़कपुर में हुई बैठक में इस पर चर्चा हुई।

आईआईटी गुवाहाटी केन्द्र के निदेशक गौतम बर्मन ने जोरदार तर्कों के साथ इसका विरोध किया है। उन्होंने १९७२ में केन्द्र सरकार द्वारा जारी आदेश का हवाला देते हुए कहा है कि अन्तरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और रक्षा संस्थानों में आरक्षण का कोई प्रावधान नही है। लिहाजा राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों को भी इसमे शामिल करना चाहिए।

बर्मन जी कि बात पूरी तरह जायज है कि आप वोट की राजनीति करो, सबसे पहले अपना हित देखो लेकिन कम से कम राष्ट्रीय महत्त्व और राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों को अनदेखा तो न करो. क्योंकि यह चीजें राष्ट्र का अहित करती हैं और आने वाली पीढियों के रास्ते को बाधित ही नही करेंगी बल्कि पूरी तरह से उनके विकास के रास्तों को बंद कर देंगी. पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने आरक्षण की फसल काटकर देख लिया लेकिन उन्हें हासिल क्या हुआ? आज वे कहाँ हैं? इतिहास में वे किसलिए याद किए जायेंगे? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने मात्र से ही पता चल जाएगा कि आरक्षण से हित हो रहा है या अहित।

यह वही नेता हैं जो चाहते हैं कि सभी जगह आरक्षण हो जाए। चाहे वो एम्स हो या फ़िर आईआईटी या आईआईएम जैसे उच्च संसथान। इनका बस चले तो सेना को भी पूरी तरह आरक्षित कर दें। चूँकि अपना कुछ जा नही रहा है तो दूसरे कि जेब से देने में क्या जाता है? सारे नेता यही सोंच रखते हैं। जब यह बीमार पड़ते है तो अपना इलाज भारत में करना भी मुनासिब नही समझते हैं। और इसके लिए इन्हे फुर्र से विदेश उड़ जाना ज्यादा अच्छा लगता है। ऐसे हैं दोहरे चरित्र वाले नेता जो अपने देश की बागडोर अपने हाथ में लिए है। अब आप ख़ुद सोंचिये कि इन परिस्तिथियों में ये अपने देश को रसातल में पहुँचा कर ही दम लेंगे। इनका एकमात्र ध्येय आरक्षण बढाकर देश को मिटाना है। ऐसे नेताओं का नारा है कि- आरक्षण बढायेंगे, देश को मिटायेंगे।

धर्मान्तरण का खतरनाक खेल




उडीसा में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के बाद २३ अगस्त से ही हिंसा शुरू हो गई थी। विहिप द्वारा २५ अगस्त को बंद के आह्वान के बाद ईसाइयों के खिलाफ जम कर हिंसा हुई और कई गिरजाघरों को आग भी लगा दी गई। २३ को ही कंधमाल और गजपति जिलों में ११ लोग मारे जा चुके हैं। प्रशासन ने स्तिथि को देखते हुए कर्फ्यू लगा दिया था। इसके बावजूद हिंसा थमने का नाम नही ले रही है। अतः दंगाइयों को देखते ही गोली मरने के आदेश दे दिए गए हैं।


स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती विहिप के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में महत्वपूर्ण सदस्य थे। कई वर्षों से धर्मान्तरण रोकने की मुहिम में जुटे थे। उनके इन कार्यों को लेकर कई संगठन नाराज थे। इससे पूर्व भी इन पर कई हमले कराये गए थे लेकिन स्वामी जी हर बार बच गए। इस बार भाग्य ने साथ नही दिया और काल के ग्रास बन गए।


स्तिथि इतनी न बिगड़ती अगर इस हत्या पर राजनीति न होती। राजनीति के चलते ही हत्या का दोष माओवादियों पर मढा जाने लगा। जिससे हिंसा को बढावा मिला। अगर उचित ढंग से जांच करायी जाती और जल्द से जल्द अपराधियों को पकड़ने का प्रयास किया जाता तो शायद स्थिति इतनी न बिगड़ती।


१९७१ की जनगणना में उडीसा में मात्र ६% ही इसाई थे और २००१ की जनगणना में ये बढकर २७% हो गए। यहाँ की तीन-चौथाई जनसंख्या आज भी गरीबी रेखा से नीचे है। इसी का फायदा उठा कर कई मिशनरियां धर्मान्तरण के कार्यों में जोर शोर से संलग्न हैं। इसकी गवाही यह जनगणना के आंकड़े देते हैं। उडीसा में आज से ४१ वर्ष पूर्व १९६७ में धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून बनाया गया था। जो अभी लागू नही है। जबकि यहाँ पिछले १० वर्षों से नवीन पटनायक के नेतृत्व बीजू जनता दल और भाजपा की सरकार है। उडीसा विधानसभा की १४७ सीटों में से ६३ सीटों के साथ बीजू जनता दल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में शासन में है और ३३ सीटों के साथ भाजपा सहयोगी है। साथ में ८ निर्दलीय सरकार को समर्थन दे रहे हैं।


भाजपा का एक प्रतिनधिमंडल मुख्यमंत्री से मिला है और अपनी मांग में हत्यारों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने, धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून लागू करने और गौहत्या क़ानून दृढ़ता से लागू करने की मांग की है। वहीँ उडीसा उच्च न्यायलय ने राज्य सरकार से हिंसा के बाद प्रभावित क्षेत्र की स्तिथि पर रिपोर्ट कल तक दायर करने को कहा है।


यहाँ पर ईसाई संगठनों और हिन्दू संगठनों के बीच धर्मांतरणों को लेकर विवाद और हिंसा कोई नई बात नही है। पिछले वर्ष २५ दिसम्बर को विहिप द्वारा बंद के दौरान कई चर्चों में तोड़-फोड़ की गई थी। जिसके परिणामस्वरुप २७ दिसम्बर को ब्राम्हणीगाँव पर हथियारबंद ईसाइयों ने हमला किया था। जिसमे एक व्यक्ति मारा गया था और ७० घर जला दिए गए थे।


इन स्तिथियों को देखते हुए यही कहा जा सकता है की सरकार ने अतीत से कोई सबक नही लिया जिसके कारण आज यह विकट हालत पैदा हुए हैं। अभी भी समय है कि सरकार समय रहते चेत जाए और विवाद कि प्रमुख जड़ गरीबी और धर्मान्तरण का उचित समाधान ढूंढ कर उसे कडाई से लागू करे।



चित्र साभार:- दा हिन्दू और गूगल










कश्मीर का श्राइन बोर्ड और महाराष्ट्र का साइन बोर्ड


कश्मीर के श्राइन बोर्ड से लगी आग अभी बुझ भी नही पाई है, और मनसे पार्टी के अध्यक्ष राज ठाकरे महाराष्ट्र में फ़िर से बवाल फैलाना चाहते हैं। इसके लिए वो सहारा ले हैं साइन बोर्ड का।

मराठी में साइन बोर्ड के कैम्पेन को आगे बढाते हुए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने चेतावनी देते हुए कहा है कि सभी साइन बोर्ड को मराठी में करने कि समय सीमा आज २८ अगस्त को समाप्त हो रही है। यदि समय सीमा समाप्ति से पूर्व सभी दुकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साइन बोर्ड मराठी में नही बदले गए तो इसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ सकता है। साथ ही पुलिस से अपील भी कर रहे हैं कि मनसे कार्यकर्ताओं के साथ नरमी बरती जाय। इसके लिए उन्होंने मुंबई पुलिस को पत्र लिखा है।

मगर मुंबई पुलिस भी क़ानून हाथ में लेने वालों से सख्ती से निपटने के लिए कमर कस चुकी है।

लगभग २ से ३ महीने ख़बरों से गायब रहने के बाद, फ़िर से ख़बर में बने रहने के लिए राज स्टंट शुरू करने जा रहे हैं। नफ़रत की आग फैला कर अपने लिए राजनैतिक जमीन तैयार करने की उनकी इस कोशिश पर लगाम नही लगाई गई तो ऐसे ही चंद कदम महाराष्ट्र को अंधेरे में धकेल देंगे। वैसे ठाकरे परिवार का यह इतिहास रहा है कि इसने अपनी राजनीति कि शुरुवात "आग-राग" गाकर ही की है. उसी प्रथा और परम्परा को राज बुलंदी देने की कोशिश कर रहे हैं।

राज की यह धमकी ही शर्मनाक है ऊपर से पुलिस से मनसे कार्यकर्ताओं के साथ नरमी बरतने की अपील और भी ज्यादा बेहूदगी भरा है। जब मनसे कार्यकर्ता मुंबई में तोड़-फोड़ करते हैं और आम नागरिकों के साथ मार-पीट करते हैं तब उन्हें रहम नजर नही आता। अब वो किस मुंह से अपने कार्यकर्ताओं के साथ नरमी की अपील कर रहे हैं? ऐसे लोगों के साथ कतई नरमी नही बरतनी चाहिए।

बल्कि बवाल फैलाने, भाषाई आधार पर बाँटने कि कोशिश और राष्ट्र को खंडित करने का आरोप में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाना चाहिए और कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।



मंगलवार, 26 अगस्त 2008

चाय की ठेले पर- कश्मीर समस्या का हल


काम के बोझ से काफी थकान लग जाने के कारण मैंने सोंचा कि चलो चाय पी कर आते हैं। चाय का आर्डर देने के बाद मैं जा कर एक बेंच पर बैठ गया और चाय का इंतजार करने लगा। मेरी बेंच व सामने की एक अन्य बेंच पर बैठे कुछ लोग चाय और सिगरेट के साथ अमरनाथ, श्राइन बोर्ड और कश्मीर समस्या पर गरमागरम बहस कर रहे थे। मुझे नही मालूम था कि उनकी क्वालीफिकेशन क्या है, लेकिन बहस काफी मजेदार लग रही थी।

घाटीवासियों की पाकिस्तानपरस्ती से वे लोग काफी नाखुश लग रहे थे। १५ अगस्त एवं उससे पूर्व व बाद की घटनाओं में जम्मू की घटना को तर्कपूर्ण ढंग से जायज मान रहे थे। आजादी से लेकर अब तक लद्दाख और जम्मू के साथ हो रहे भेद-भाव को इसका कारण मान रहे थे। वहीं कश्मीर की घटनाओं का कारण सरकार की ग़लत नीतियों, घाटीवासियों को दी जाने वाली सुविधाओं और छूट को मान रहे थे।

मेरी एक चाय ख़त्म हो चुकी थी।

उन लोगों की पूरी बहस सुनने के उद्देश्य से मैंने एक और चाय का आर्डर दिया। साथ ही एक सिगरेट मैंने भी सुलगा ली। कारण यह था कि मैं जानना चाहता था कि देश के ज्वलंत मुद्दों पर आम लोग क्या सोंचते हैं? तब तक उनका एक और साथी आ गया। उन्होंने उसके साथ-साथ अपने लिए भी चाय का आर्डर दिया। उस आगंतुक मित्र ने पूछा कि भाई क्या चर्चा चल रही है? उनमे से एक ने जबाब दिया वही पुराना जे एंड के। फ़िर उसने पूछा कि कोई हल निकला या नही? जबाब आया नही, अभी तो समस्या पर ही चर्चा हो रही है। तो उसने कहा कि ऐसा तो सभी करते हैं। मुद्दों पर बहस करते हैं। लेकिन प्रश्न का उत्तर नही मिलता है। सार्थक बहस तो तभी है जब उसका हल निकले। सभी ने कहा तुम्ही हल निकालों। उसने कहा कि पहले समस्या बताओ फ़िर हल खोजेंगे। एक ने बताया कि इस समय जे एंड के में चारों ओर आग जल रही है। इस आग में पेट्रोल का काम कश्मीर कि राष्ट्रविद्रोही गतिविधियाँ कर रही हैं। इस मामले में सरकार पंगुता कि स्तिथि में पहुँच गई है। क्या कश्मीर कि इन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को काबू में करने का कोई उपाय है?

उसने कहा उपाय तो है लेकिन इसके जरूरी है दृढ़-इच्छाशक्ति ओर स्वहित को छोड़कर राष्ट्रहित देखना। सभी ने बात तो सही है लेकिन हल क्या है? उसने कहा कि पहले एक सिगरेट मंगाओ फ़िर बताता हूँ। अब मेरी उत्कंठा और बढ़ गई थी कि आख़िर हल क्या है? एक ने सभी के लिए सिगरेट का आर्डर दिया। मैंने भी अपने लिए एक सिगरेट का आर्डर दिया। सभी ने सिगरेट जलने के बाद कहा अब हल तो बताओ।

उसने कहा कि इसके हल के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कश्मीर में सुप्रीम पॉवर में होना। मान लो कि मैं राष्ट्रपति हूँ तो

सबसे पहला काम यह होगा कि- जहाँ-जहाँ अलगाववादी ओर राष्ट्रद्रोही फैले हैं, ज्यादातर घाटी में अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लेकर जम्मू तक पूरे क्षेत्र को मिलिट्री द्वारा घिरवा लूँगा।

दूसरा कदम- वहां पर मीडिया ओर मानवाधिकार को प्रतिबंधित कर दूँगा।

फ़िर तीसरा कदम यह होगा कि- राष्ट्रद्रोहियों ओर अलगाववादियों को चिन्हित करके उन्हें कैद कर लूँगा या फ़िर समूल नष्ट कर दूँगा।

इसके बाद भी कश्मीर को मिलिट्री के अन्दर में कम से कम साल भर रखूँगा। तब तक धारा-३७० समाप्त कर जम्मू और लद्दाख में शरणार्थियों को बसा दूँगा। फ़िर कश्मीर से मिलिट्री हटा कर बार्डर पर लगा दूँगा ओर घाटी में भी शरणार्थियों को बसा दूँगा। सभी ने सुझाये गए हल की सराहना की।

किंतु मैं अपनी जिज्ञासा को रोक नही पाया और पूछ ही बैठा कि तुम्हारे इन क़दमों पर अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां व अन्य राष्ट्र हल्ला नही मचाएंगे? तो उसने जबाब दिया कि वे सिर्फ़ हल्ला ही मचाएंगे। क्योंकि यह मेरे राष्ट्र का अंदरूनी मामला है और इसमे कोई भी हस्तक्षेप हमारी संप्रभुता और अखंडता पर हमला माना जाएगा। हमले का जबाब भी हमले के रूप में दिया जाएगा। और इस नाभकीय युग में कोई भी नाभिकीय अस्त्रों से लैस राष्ट्र से लड़ना नही चाहेगा। इसी फार्मूले को अपना कर चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और किसी के बोलने पर उसे धमका देता है। अभी रूस ने भी अशेतिया पर यही तो किया है। लेकिन एक बार फ़िर से कहूँगा कि सबसे ज्यादा जरूरी है दृढ़-इच्छाशक्ति का होना। सभी ने कहा कि अगले राष्ट्रपति तुम बन जाओ। मैंने कहा- आमीन। यहीं पर सिगरेट के साथ-साथ बहस भी समाप्त हो गई। सभी अपने-अपने गंतव्य की ओर चल दिए।

मैं चलते-चलते यह सोंच रहा था कि जिस समस्या का हल इतने दिनों से बड़े-बड़े मीटिंगों और वीआईपी कमरों की बैठकों में नही खोजा जा सका। उसका हल मिला एक चाय के ठेले पर। काश वह व्यक्ति राष्ट्रपति हो जाता ओर कश्मीर समस्या सुलझ जाती। लेकिन यह काश, काश रह जाता है......!!!!!!!!...........

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

एक और प्रहार......

भोपाल में मीडिया युद्ध अभी ख़त्म नही हुआ है। वह अभी भी चल रहा है। अभी २-३ दिन पहले दैनिक भास्कर ने ख़बर छापी थी कि- आतंकी संगठन सिमी के मुखिया सफ़दर नागौरी को गुजरात पुलिस ने गुजरात सीरियल बम विस्फोटों के सिलसिले में पूंछ-तांछ के लिए रात में गुपचुप ढंग से मध्य प्रदेश के जेल से निकाल कर किसी अज्ञात स्थान पर ले गई है।
इसी के ऊपर पत्रिका ने लिखा कि- भास्कर ने दी फ़िर झूंठी ख़बर। अभी भी नागौरी जेल में है। जेल प्रशासन ने नागौरी के जेल में ही होने की पुष्टि की।
यह ख़बर पत्रिका ने प्रथम पृष्ट पर छपी थी। इसके पहले भी भास्कर के रिनी बाघिन के मरने की ख़बर पर पत्रिका ने तीखा प्रहार किया था। २७,२८ और २९ मई २००८ के अंकों में आप देख सकते हैं। इससे जुड़ी ख़बर आप इसी ब्लॉग पर मई वाले खंड में देख सकते हैं। यह इनकी प्रतिद्वंदिता का ही परिणाम है जो कि राजस्थान से शुरू हुआ था और अब मध्य प्रदेश में पहुँच चुका है। देखिये अभी आगे-आगे होता है क्या????????

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

लुमडिंग से बदरपुर तक रेल सेवा बंद करने की मांग......





नार्थ-ईस्ट फ्रांटियर रेलवे ने अवैध बंगलादेशी नागरिकों, उल्फा आतंकियों और अन्य देशद्रोहियों से सुरक्षा न मुहैया करा सकने की वजह से लुमडिंग से बदरपुर तक रेल सेवा बंद करने की बात कही है। जबकि चीन ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक रेलवे लाइन बिछा दी है। यह है महाशक्ति बन रहे देश की सुरक्षा की असलियत।


केंद्रीय गृह-मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है कि सिमी पर से प्रतिबन्ध न हटाया जाय। क्योंकि पूरे देश में उस पर ४०९ मुक़दमे दर्ज हैं और उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत मौजूद हैं। यह वही सिमी है जो लश्कर-ऐ-तैय्यबा,जैश-ऐ-मोहम्मद,हूजी और इंडियन-मुजाहिद्दीन के लिए आउट-सोर्सिंग कर रहा है। संभावना तो यह भी व्यक्त कि जा रही है कि प्रतिबंधित होने पर सिमी ही इंडियन-मुजाहिद्दीन के छद्म नाम से आतंकी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है।


जबकि हमारे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और मुलायम सिंह यादव जैसे कथित समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नेता सिमी जैसे घातक,आतंकी और राष्ट्रद्रोही संगठन को क्लीन चिट दे रहे हैं और उनका समर्थन कर रहे हैं।


जब रेल मंत्री ही आतंकियों के पक्ष में बोलता नजर आ रहा है तो वह अपने विभाग को सुरक्षा कहाँ से दिला पायेगा?ऐसा विहंगम दृश्य कहाँ देखने को मिलेगा कि सरकार के अधीन गृह-मंत्रालय जहाँ आतंकी संगठन पर प्रतिबन्ध की मांग करता है, वहीँ उसी सरकार में सम्मिलित कुछ मंत्री उस संगठन को क्लीन चिट दे रहे हैं। यही तो है असली लोकतंत्र का नमूना। क्या इसी के दम पर हम चीन को पिछाड़कर महाशक्ति बनेगे?


फीलगुड की तरह ही इस बार भी देशवासियों को महाशक्ति का झुनझुना पकड़ा दिया गया है। जिसमे हम आत्ममुग्ध हैं। इस डर से हम सरकार पर उंगली नही उठाएंगे और उसके अच्छे-बुरे कार्यों का आँख मूँद कर अनुमोदन करेंगे कि कहीं यह झुनझुना हमारे हाथ से निकलकर चीन के हाथ में न चला जाए।वास्तविकता के धरातल पर देखें तो स्वयं पता लग जाता है कि इस दौड़ में चीन हमसे काफी आगे है। हम तो इस दौड़ में थे ही नही। क्या ये नेता राष्ट्र कि अस्मिता और सुरक्षा को दांव पर लगा कर रोटी खाना चाहते हैं? क्या इन्हे रोकना और सबक सिखाना हमारी जिम्मेदारी नही बनती है? जब सरकार अपने मंत्रियों पर अंकुश नही लगा सकती तो जनता को ही इसके लिए आगे आना होगा।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

श्राइन बोर्ड तो बहाना है, कहीं और निशाना है.


५० दिन से जलता जम्मू और कश्मीर.........
रोटी सेंकते अलगाववादी और विदेशी ताकतें.........
जूठन के लालच में खड़े राजनैतिक दल और नेता.........
इनके बीच पिसते राज्य के आम नागरिक..........
मूक दर्शक बनी देश की जनता........
यह भयावह तस्वीर है उस देश की जो इस मिथ्याभिमान में झूम रहा है की वह महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।
बंद के ५० दिन पूरे होने पर नेताओं के तेवर ढीले पड़ गए हैं लेकिन वहां की जनता में अभी भी जोश बरक़रार है। २ लाख महिलाओं की गिरफ्तारी पर उन्हें एक १५ साल की किशोरी संबोधित करते हुए कह रही थी कि हम अपना हक़ और जमीन दोनों वापस ले कर रहेंगे। गिरफ्तारी देने गई सभी महिलाएं अपना नाम पार्वती,पति का नाम शिवशंकर और निवासी बालटाल बता रही थीं।
जहाँ अलगाववादियों और पाकिस्तान का उद्देश्य कश्मीर को तोड़कर पाक में विलय करना है वहीँ जम्मू लगातार अपनी उपेक्षा और भेदभाव से परेशान होकर इसी बहाने आर-पार कि लडाई लड़ने के मूड में दिख रहा है। मुस्लिमों को जमीन देने पर कोई ऐतराज नही था क्योंकि यह जमीन बंजर थी और साल में ८ महीने यहाँ बर्फ जमी रहती है अतः इसका कोई ख़ास उपयोग नही था परन्तु कट्टरवादी नेताओं ने गुमराह कर भड़काया कि धीरे-धीरे हिंदूवादी ताकतें कब्जा करना चाहती हैं जिससे वे घबरा गए और बहककर उनके साथ हो गए।
अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी खुलेआम जम्मू और कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की मांग कर रहे हैं,वहीँ पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती भी मुजफ्फराबाद मार्च में उनके समर्थन में आ खड़ी हुई। आन्दोलन की कमान नेताओं के हाथ से निकलकर जनता व अलगाववादिओं के हाथ में आ गई है।
कई पंथनिरपेक्ष पार्टियाँ तो इन्ही अलगाववादिओं के सुर में ही राग अलापना चाहती हैं और इसकी कोशिश भी करती दिख रही हैं। अरुंधती राय ने आजाद-कश्मीर की वकालत भी कर डाली लेकिन इसके विरोध में किसी ने भी बोलने की जहमत नही उठाई।
सुरक्षा एजेंसियां चिल्ला-चिल्ला कर कह रही हैं कि आन्दोलन में कई उग्रवादी शामिल हैं परन्तु सरकार इस पर ध्यान न देकर नरम रवैया अपनाए हुए है जिससे सुरक्षा बल कार्यवाही नही कर पा रहे हैं।अलगाववादियों द्वारा इसे संयुक्त राष्ट्र में ले जाने कि मांग कि जा रही है. दुबारा इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण होते देखकर सरकार के हाथ-पैर फूल चुके हैं और वह किंकर्तव्यविमूढ है. क्या विश्वासमत में मिले पीडीपी के एक वोट के एहसान तले संप्रग सरकार इतनी दब गई है कि उचित कार्यवाही तो दूर वह फटकार भी नही सकती है? सरकार के साथ सभी पार्टियाँ और नेता पूरी तरह भ्रमित नजर आ रहे हैं. यही है महाशक्ति बनने का सपना?
घाटी में कट्टरपंथियों ने ४ दिन बवाल मचाया तो फ़ौरन जमीन वापस ले ली जबकि जम्मू में ५० दिन से चल रहे आन्दोलन से सरकार कि नीद नही खुल रही है. १५ अगस्त को घाटी में काला दिवस मनाया गया. तिरंगे को जलाया गया,पाकिस्तानी झंडे को लहरा के नारे लगाये गए कि भारत तेरी मौत आए,मिल्लत आए. सारा दिन मस्जिदों से लाउडस्पीकरों में चिल्लाये कि हमको आजादी चाहिए। श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण के बाद तिरंगा उतारकर पाकिस्तानी झंडा फहराया. क्या यह हमारी देश कि संप्रभुता का अपमान नही है? क्या यह राष्ट्रद्रोह नही है? मुजफ्फराबाद मार्च में भी व्यापर मार्ग खोलने कि बू आती है. क्या इजराइल,अमेरिका,चीन या रूस ऐसी स्तिथि में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते या फ़िर ऐसे लोगों को नेस्तोनाबूत कर देते? न कोई मीडिया होता,न कोई मानवाधिकार होता और अगर कोई दूसरा देश बोलता तो उसे भी फाड़ खाते. देश चलाने वालों जरा सीखो इनसे......
.जय हिंद.

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

अभिनव बिंद्रा ने तोडी ओलम्पिक की निद्रा..........




बीजिंग ओलंपिक में अभिनव ने ११२ वर्षों के बाद भारत की ओर व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीत कर वह महान क्षण रच दिया जिसका सभी भारतीयों को इंतजार था। निःसंदेह यह वह क्षण है जिसे भारत हमेशा याद रखेगा। ऐसा ही इतिहास १९८३ में कपिल ने रचा था।
भारत ने अब तक ८ स्वर्ण पदक जीते थे वह भी हाकी में। परन्तु इस बार हाकी में क्वालीफाई न कर पाने के कारण भारतीयों की रूचि ओलंपिक से ख़त्म हो गई थी। लेकिन अभिनव के निशाने ने आगे की उम्मीदें जगा दी हैं। १९८० के बाद मिले इस स्वर्ण ने बाकियों को भी प्रोत्साहित किया है कि वे भी अपना सर्वस्व झोंक दें।
इस प्रदर्शन पर अभिनव पर करोड़ों कि बरसात हुई है। क्या अभिनव इसमे से कुछ हिस्सा निशानेबाजी या अन्य खेलों के विकास के लिए देंगे? हालाँकि उन्होंने अपनी तैयारी पर १० करोड़ खर्च किए हैं। वे सक्षम थे अतः ऐसा कर पाए। क्या स्वर्ण कि राह दिखने के बाद उस पर दौड़ने में भी मदद करेंगे?
वहीँ बिंद्रा पर करोड़ों कि बरसात करने वाले राज्य और सरकारों ने क्या यह तय कर रखा है कि जीतने पर ही पैसे लुटाएंगे, जीतने कि तैयारी करने पर नहीं? क्रिकेट को छोड़कर अन्य खिलाड़ी संसाधनों और कोच का रोना रोते हैं, क्या उस दिशा में भी सरकारें समुचित कदम उठाएंगी?
यदि इन प्रश्नों को सुलझा लिया गया तो वह दिन दूर नहीं कि हम ओलंपिक के शिखर पर विराजमान होंगे।

सोमवार, 11 अगस्त 2008

कहाँ है सिमी का जन्मदाता????????




जमात-ऐ-इस्लामी के सदस्य और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र मोहम्मद अहमदुल्ला सिद्दीकी ने १९७७ में सिमी(स्टूडेंट ऑफ़ इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया) की स्थापना की थी। जिसका उद्देश्य भारतीय मुसलमानों को पश्चिम की मूल्यहीन संस्कृति से मुक्ति दिलाना था, परन्तु विडम्बना देखिये कि वही अहमदुल्ला अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में जनसंचार का शिक्षक है। इन्होने इस बात का अफ़सोस जताया कि सिमी अपने उद्देश्य से भटक गया है क्योंकि इस्लाम हिंसा कि शिक्षा नही देता।
सिमी को १९९० में राम मन्दिर आन्दोलन के समय काफी विस्तार मिला। इस समय इसके आदर्श पुरूष ईरान के शिया धर्मगुरु अयातुल्ला खुमैनी थे। क्योंकि इन्होने ईरान के तानाशाह शासक रजा पहलवी को अमेरिका खदेड़ दिया था जो कि अमेरिका कि कठपुतली था।
सिमी अमेरिका का घोर विरोधी था क्योंकि इसकी नींव ही अमेरिका और पश्चिम विरोध पर रखी गई थी। सिमी देवबंद विचारधारा अर्थात सुन्नी होते हुए भी शिया धर्मगुरु और शिया देश का समर्थन करता था। लेकिन खुमैनी की मौत के बाद इराक-अमेरिका युद्घ में सद्दाम को हीरो के रूप में पेश किया। अफगानिस्तान पर तालिबान कब्जे के बाद सिमी ने कई शहरों की दीवारों पर अपना मोटो लिखा- 'नो डेमोक्रेसी, नो सेक्युलरिज्म, ओनली खिलाफत'। इसके लिए तर्क देते थे की कुरान में लिखा है कि मुसलमान एक दिन दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करेंगे।

जहाँ बाबरी मस्जिद का लाभ भाजपा ने उठाया वहीँ सपा और सिमी ने भी खूब लाभ उठाया। मुलायम ने मुस्लिम वोट बैंक के खातिर इस घाव को हमेशा ताजा रखा। सिमी ने बाकायदा बाबरी मस्जिद के आंसू बहते पोस्टर बनवाए जिसमे लिखा था- या इलाही भेज दे महमूद कोई। यहाँ १७ बार सोमनाथ मन्दिर तोड़ने वाले महमूद गजनी को याद किया जा रहा था।
धीरे-धीरे सिमी के सम्बन्ध आईएसआई और लश्कर-ऐ-तैयबा से हो गया। जमात-ऐ-इस्लामी ने ख़ुद को दिखाने के लिए सिमी से अलग कर लिया और विद्यार्थियों का अलग संगठन एसआईओ (स्टूडेंट ऑफ़ इस्लामिक ओर्गानैजेशन) बना लिया, जो मात्र कागजी ही है। वास्तव में सिमी, जमात-ऐ-इस्लामी कि ही हथियारबंद शाखा है।

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

राजनीति का दलाल या राजनीति का व्यवसाई ????????


एक सफल व्यवसाई से सफल राजनीतिज्ञ का सफर...........

एक क्षेत्रीय दल के अध्यक्ष के खास सिपासालार से केन्द्र की राजनीति की धुरी बनना.........

केन्द्र की गिरती साझा सरकार को ऐन वक्त सहारा देकर बचा लेना.........

फिल्मी दुनिया शहंशाह से लेकर उद्योग जगत के अनिल अम्बानी तक से गहरी दोस्ती रखने के लिए मशहूर.........

हमेशा चर्चा में बने रहने का गुण........

यह सभी कलाएं इशारा करती हैं समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की ओर जहाँ यह सारे गुण उनके सफल राजनीतिज्ञ होने पर मुहर लगते हैं, वहीँ उनके विरोधी उन्हें सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ दलाल का तमगा देते हैं। वह साथियों के लिए संकटमोचक हैं तो विरोधियों एक मुसीबत। उन्होंने अपने संबंधों का उपयोग अपनी ताकत और पहुँच बनाने के लिए किया, तो फ़िर अपनी ताकत और पहुँच से अपने संबंधियों को लाभ भी पहुँचाया है। अब तो राजनीति ही उनका व्यवसाय बन गई है। आइये मंथन करते हैं कि क्या कारण है कि अमर सिंह राजनीति में हर जगह अपनी गोटी फिट करने में सफल रहते है? क्या उन्होंने राजनीति में व्यवसाय को मिला दिया है? तो शुरू कीजिये मंथन क्योंकि मंथन है आपके विचारों का दर्पण।