

अहं ब्रह्मास्मि.........
जी हाँ , उपर्युक्त शीर्षक पर विचार करें तो जबाब मिलता है- हाँ ।
पाकिस्तान में रोज बम धमाके हो रहे हैं, प्रतिदिन आतंकी गोलियों की बौछार करते हुए किसी को भी मौत के घाट उतार देते हैं, आतंकी पूरे पाकिस्तान में जहाँ चाहें वहां आसानी से हमला कर सकते है और किसी को भी बेरोकटोक निशाना बना लेते हैं। हम उनका मजाक उड़ते हैं, उनके परमाणु प्रतिष्ठानों और परमाणु हथियारों की सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं।
अब जरा गौर करें कि क्या ऐसे ही हालात भारत में नही निर्मित हो गए हैं?
लश्कर-ऐ- तैयबा के जैसी कार्यप्रणाली पर काम करने ये वाले आतंकी ख़ुद को इंडियन मुजाहिद्दीन या डेक्कन मुजाहिद्दीन के छद्म नाम से प्रचारित करते है और हमले के पहले सूचना देते हैं कि हम आमुक स्थान पर हमला करने जा रहे हैं यदि दम है तो रोक लो?
हमले के बाद हमारी सुस्त कार्य प्रणाली हरकत में आती है और किश्तों में जांच शुरू कि जाती है। जांच ही काफ़ी दिनों तक घसीट-घसीट कर चलती है और निष्कर्ष नही आ पाता है। यदि किसी ठोस नतीजे पर पहुँच भी जाएँ तो उसे सजा नही दिला पाते। इस पूरी कार्यवाही के दौरान मानवाधिकार वाले खूब हल्ला मचाते हैं और विभिन्न राजनैतिक दल राष्ट्रहित को तिलांजलि देकर अपना वोट बैंक और स्वहित देखते हैं।
लश्कर-ऐ- तैयबा द्वारा प्रशिक्षित सिमी के ये कार्यकर्ता छोटे-छोटे गुटों में बंटकर नकली नाम से अपने मिशन को अंजाम देते हैं। और जरूरत पड़ने पर ये गुट साझा होकर भी अंजाम देते हैं। घटना के बाद हमारे राष्ट्र को चलने वाले बयान देते हैं कि- हम इसकी कड़ी निंदा करते हैं, सीमा पार प्रायोजित है, आतंकियों को बख्शा नही जाएगा, हम छोडेंगे नही आदि। अरे भाई! पहले पकडो तो सही। अगर मालूम है कि सीमा पार प्रायोजित है तो उचित कार्यवाही क्यों नही करते? वैश्विक दबाव काहे नही बनवाते? खाली ''थोथा चना बाजे घना'' वाली कहावत चरित्रार्थ हो रही है।
उत्तर-प्रदेश, जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद, दिल्ली, असम और फ़िर मुंबई। क्रमशः इन जगहों को ये अपना निशाना बनाते हैं और हम हर बार दावा करते हैं कि हमारी सुरक्षा व्यस्था टाइट है। इसी दावे के तुंरत बाद हम फ़िर से निशाना बनते है। मतलब साफ़ है कि वो जब, जहाँ, जैसा चाहते हैं वैसा कर डालते हैं और हम देखते रह जाते हैं।
इसको देखते हुए क्या हमारे परमाणु प्रतिष्ठानों कि सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न नही खड़ा होता है? क्या हमारी हालत पकिस्तान से भी ज्यादा ख़राब नही है? धनबल में, सांख्यबल में, रुतबे में, हर दृष्टि में पकिस्तान से बेहतर हैं, हम पर किसी भी राष्ट्र का कोई दबाव भी नही है फ़िर भी हमारी हालत उन्ही के बराबर है तो इसका क्या मतलब निकला जाय?
हमारे यहाँ आतंकवाद सम्बन्धी कड़े कानूनों का अभाव है? संघीय जांच एजेंसी नही है। केन्द्र और राज्य सरकारों में तालमेल का आभाव है। ऐसे मौकों पर राजनैतिक लाभ और वोट बैंक की राजनीति हमेशा अडी रहती है। इस पर खुफिया असफलता, मीडिया की नकारात्मक भूमिका, हर एक पल को सनसनीखेज बनाकर पेश करना और जनता की निष्क्रियता ''कोढ़ में खाज'' जैसी हो गई है।
अन्य राष्ट्रों में चुनावी मुद्दे विदेश नीति, नागरिक सुरक्षा, विकास आदि रहते हैं तो हमारे यहाँ जाति, वंश, बाहुबल आदि रहते हैं। जनता इसके विरोध में उठ खड़ी भी नही होती। वो तो सोंचती है मैं मजे में हूँ बाकि जाए भाड़ में, मुझे क्या लेना है या फ़िर इस चौपाई के सहारे जी रही है की- '' होएहै वही जो राम रचि राखा ''।
अभी भी वक्त रहते सचेत न हुए तो निश्चय ही पकिस्तान से पहले हम बर्बाद हो जायेंगे।
चित्र साभार: गूगल
उडीसा में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के बाद २३ अगस्त से ही हिंसा शुरू हो गई थी। विहिप द्वारा २५ अगस्त को बंद के आह्वान के बाद ईसाइयों के खिलाफ जम कर हिंसा हुई और कई गिरजाघरों को आग भी लगा दी गई। २३ को ही कंधमाल और गजपति जिलों में ११ लोग मारे जा चुके हैं। प्रशासन ने स्तिथि को देखते हुए कर्फ्यू लगा दिया था। इसके बावजूद हिंसा थमने का नाम नही ले रही है। अतः दंगाइयों को देखते ही गोली मरने के आदेश दे दिए गए हैं।
स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती विहिप के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में महत्वपूर्ण सदस्य थे। कई वर्षों से धर्मान्तरण रोकने की मुहिम में जुटे थे। उनके इन कार्यों को लेकर कई संगठन नाराज थे। इससे पूर्व भी इन पर कई हमले कराये गए थे लेकिन स्वामी जी हर बार बच गए। इस बार भाग्य ने साथ नही दिया और काल के ग्रास बन गए।
स्तिथि इतनी न बिगड़ती अगर इस हत्या पर राजनीति न होती। राजनीति के चलते ही हत्या का दोष माओवादियों पर मढा जाने लगा। जिससे हिंसा को बढावा मिला। अगर उचित ढंग से जांच करायी जाती और जल्द से जल्द अपराधियों को पकड़ने का प्रयास किया जाता तो शायद स्थिति इतनी न बिगड़ती।
१९७१ की जनगणना में उडीसा में मात्र ६% ही इसाई थे और २००१ की जनगणना में ये बढकर २७% हो गए। यहाँ की तीन-चौथाई जनसंख्या आज भी गरीबी रेखा से नीचे है। इसी का फायदा उठा कर कई मिशनरियां धर्मान्तरण के कार्यों में जोर शोर से संलग्न हैं। इसकी गवाही यह जनगणना के आंकड़े देते हैं। उडीसा में आज से ४१ वर्ष पूर्व १९६७ में धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून बनाया गया था। जो अभी लागू नही है। जबकि यहाँ पिछले १० वर्षों से नवीन पटनायक के नेतृत्व बीजू जनता दल और भाजपा की सरकार है। उडीसा विधानसभा की १४७ सीटों में से ६३ सीटों के साथ बीजू जनता दल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में शासन में है और ३३ सीटों के साथ भाजपा सहयोगी है। साथ में ८ निर्दलीय सरकार को समर्थन दे रहे हैं।
भाजपा का एक प्रतिनधिमंडल मुख्यमंत्री से मिला है और अपनी मांग में हत्यारों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने, धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून लागू करने और गौहत्या क़ानून दृढ़ता से लागू करने की मांग की है। वहीँ उडीसा उच्च न्यायलय ने राज्य सरकार से हिंसा के बाद प्रभावित क्षेत्र की स्तिथि पर रिपोर्ट कल तक दायर करने को कहा है।
यहाँ पर ईसाई संगठनों और हिन्दू संगठनों के बीच धर्मांतरणों को लेकर विवाद और हिंसा कोई नई बात नही है। पिछले वर्ष २५ दिसम्बर को विहिप द्वारा बंद के दौरान कई चर्चों में तोड़-फोड़ की गई थी। जिसके परिणामस्वरुप २७ दिसम्बर को ब्राम्हणीगाँव पर हथियारबंद ईसाइयों ने हमला किया था। जिसमे एक व्यक्ति मारा गया था और ७० घर जला दिए गए थे।
इन स्तिथियों को देखते हुए यही कहा जा सकता है की सरकार ने अतीत से कोई सबक नही लिया जिसके कारण आज यह विकट हालत पैदा हुए हैं। अभी भी समय है कि सरकार समय रहते चेत जाए और विवाद कि प्रमुख जड़ गरीबी और धर्मान्तरण का उचित समाधान ढूंढ कर उसे कडाई से लागू करे।
नार्थ-ईस्ट फ्रांटियर रेलवे ने अवैध बंगलादेशी नागरिकों, उल्फा आतंकियों और अन्य देशद्रोहियों से सुरक्षा न मुहैया करा सकने की वजह से लुमडिंग से बदरपुर तक रेल सेवा बंद करने की बात कही है। जबकि चीन ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक रेलवे लाइन बिछा दी है। यह है महाशक्ति बन रहे देश की सुरक्षा की असलियत।
केंद्रीय गृह-मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है कि सिमी पर से प्रतिबन्ध न हटाया जाय। क्योंकि पूरे देश में उस पर ४०९ मुक़दमे दर्ज हैं और उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत मौजूद हैं। यह वही सिमी है जो लश्कर-ऐ-तैय्यबा,जैश-ऐ-मोहम्मद,हूजी और इंडियन-मुजाहिद्दीन के लिए आउट-सोर्सिंग कर रहा है। संभावना तो यह भी व्यक्त कि जा रही है कि प्रतिबंधित होने पर सिमी ही इंडियन-मुजाहिद्दीन के छद्म नाम से आतंकी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है।
जबकि हमारे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और मुलायम सिंह यादव जैसे कथित समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नेता सिमी जैसे घातक,आतंकी और राष्ट्रद्रोही संगठन को क्लीन चिट दे रहे हैं और उनका समर्थन कर रहे हैं।
जब रेल मंत्री ही आतंकियों के पक्ष में बोलता नजर आ रहा है तो वह अपने विभाग को सुरक्षा कहाँ से दिला पायेगा?ऐसा विहंगम दृश्य कहाँ देखने को मिलेगा कि सरकार के अधीन गृह-मंत्रालय जहाँ आतंकी संगठन पर प्रतिबन्ध की मांग करता है, वहीँ उसी सरकार में सम्मिलित कुछ मंत्री उस संगठन को क्लीन चिट दे रहे हैं। यही तो है असली लोकतंत्र का नमूना। क्या इसी के दम पर हम चीन को पिछाड़कर महाशक्ति बनेगे?
फीलगुड की तरह ही इस बार भी देशवासियों को महाशक्ति का झुनझुना पकड़ा दिया गया है। जिसमे हम आत्ममुग्ध हैं। इस डर से हम सरकार पर उंगली नही उठाएंगे और उसके अच्छे-बुरे कार्यों का आँख मूँद कर अनुमोदन करेंगे कि कहीं यह झुनझुना हमारे हाथ से निकलकर चीन के हाथ में न चला जाए।वास्तविकता के धरातल पर देखें तो स्वयं पता लग जाता है कि इस दौड़ में चीन हमसे काफी आगे है। हम तो इस दौड़ में थे ही नही। क्या ये नेता राष्ट्र कि अस्मिता और सुरक्षा को दांव पर लगा कर रोटी खाना चाहते हैं? क्या इन्हे रोकना और सबक सिखाना हमारी जिम्मेदारी नही बनती है? जब सरकार अपने मंत्रियों पर अंकुश नही लगा सकती तो जनता को ही इसके लिए आगे आना होगा।
आज दिनांक ३० मई ०८ को मैंने पोर्टल पर समाचार देखने के लिए बीबीसी खोला तो मनोरंजन के कालम मे पहली ख़बर थी कि "हाथी ने सात लोगों को कुचल कर मारा" ।
मेरी समझ मे नही आया कि सात लोगों के मरने की ख़बर मनोरंजन कैसे हो सकती है? इसके दो कारण हो सकते है - * या तो लोगों मे मानवता खत्म हो गई है कि आदमी के जान की कीमत कुछ नही है , तो इसे मनोरंजन माना जा सकता है।
* या फ़िर ऐसा गलती से हो गया।
इसमे दूसरा कारण ही सत्य प्रतीत होता है। अगर दूसरा कारण सत्य है तो यह भी अच्छी बात नही है। अधिकांश लोग बीबीसी को सबसे तेज और सर्वाधिक सत्य मानते हैं। इससे ऐसी गलती कि उम्मीद नही थी और तो और शाम तक इसे सुधारा भी नही जा सका। क्या इस भूल के कोई मायने है?
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